संत रविदास जी का संक्षिप्त विवरण : – संत रविदास जी एक पूज्यमान संत और कवि थे, जिनका जन्म 15वीं सदी में वाराणसी भारत में हुआ था। उन्हें अपनी निम्न वर्गीय पृष्ठभूमि के कारण समाज में भेदभाव का सामना करना पड़ा, लेकिन रविदास जी ने अपना जीवन भक्ति और सामाजिक सुधार में समर्पित कर दिया।
रविदास जी का सफर आध्यात्मिक ज्ञान की गहरी तलाश से शुरू हुआ। उन्होंने संतों और महर्षियों के साथ समय बिताकर ईश्वर की एकता और प्रेम तथा करुणा की महत्वपूर्णता के बारे में सीखा। उनकी शिक्षाएं सभी प्राणियों के समानता की महत्वपूर्णता पर आधारित थीं, चाहे वे किसी जाति या सामाजिक स्थिति के हों। एक दिन जब रविदास जी नदी के किनारे ध्यान में रत थे, उन्हें एक गहन आध्यात्मिक अनुभव हुआ। उन्हें यह अनुभव हुआ कि दिव्य प्रेसेंस सभी जीवों में है Ravidas Jayanti और भगवान की असलीता किसी भी रूप या जाति से परे है। यह दर्शन उनकी शिक्षाओं का आधार बन गया।
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कबीर कहा गरबियो काल गहे कर केस,
ना जाने कहाँ मारिसी कै घर कै परदेस।
हाड़ जलै ज्यूं लाकड़ी केस जलै ज्यूं घास,
सब तन जलता देखि करि भया कबीर उदास।
जो उग्या सो अन्तबै फूल्या सो कुमलाहीं,
जो चिनिया सो ढही पड़े जो आया सो जाहीं।
झूठे सुख को सुख कहे मानत है मन मोद,
खलक चबैना काल का कुछ मुंह में कुछ गोद।
ऐसा कोई ना मिले हमको दे उपदेस,
भौ सागर में डूबता कर गहि काढै केस।
कबीर तन पंछी भया जहां मन तहां उडी जाइ,
जो जैसी संगती कर सो तैसा ही फल पाइ।
कबीर सो धन संचे जो आगे को होय,
सीस चढ़ाए पोटली ले जात न देख्यो कोय।
मन हीं मनोरथ छांड़ी दे तेरा किया न होई,
पानी में घिव निकसे तो रूखा खाए न कोई।
हरिया जांणे रूखड़ा उस पाणी का नेह,
सूका काठ न जानई कबहूँ बरसा मेंह।
झिरमिर- झिरमिर बरसिया पाहन ऊपर मेंह,
माटी गलि सैजल भई पांहन बोही तेह।
Ravidas Jayanti
कबीर थोड़ा जीवना मांड़े बहुत मंड़ाण,
कबीर थोड़ा जीवना मांड़े बहुत मंड़ाण।
इक दिन ऐसा होइगा सब सूं पड़े बिछोह,
राजा राणा छत्रपति सावधान किन होय।
कबीर प्रेम न चक्खियाचक्खि न लिया साव,
सूने घर का पाहुना ज्यूं आया त्यूं जाव।
मान महातम प्रेम रस गरवा तण गुण नेह,
ए सबही अहला गया जबहीं कह्या कुछ देह।
जाता है सो जाण दे तेरी दसा न जाइ,
खेवटिया की नांव ज्यूं घने मिलेंगे आइ।
यह तन काचा कुम्भ हैलिया फिरे था साथ,
ढबका लागा फूटिगा कछू न आया हाथ।
मैं मैं बड़ी बलाय है सकै तो निकसी भागि,
कब लग राखौं हे सखी रूई लपेटी आगि।
कबीर बादल प्रेम का हम पर बरसा आई,
अंतरि भीगी आतमा हरी भई बनराई।
जिहि घट प्रेम न प्रीति रस पुनि रसना नहीं नाम,
ते नर या संसार में उपजी भए बेकाम।
लंबा मारग दूरि घर बिकट पंथ बहु मार,
कहौ संतों क्यूं पाइए दुर्लभ हरि दीदार।
Kabir das ke dohe in hindi
इस तन का दीवा करों बाती मेल्यूं जीव,
लोही सींचौं तेल ज्यूं कब मुख देखों पीव।
नैना अंतर आव तू ज्यूं हौं नैन झंपेउ,
ना हौं देखूं और को न तुझ देखन देऊँ।
कबीर रेख सिन्दूर की काजल दिया न जाई,
नैनूं रमैया रमि रहा दूजा कहाँ समाई।
कबीर सीप समंद की रटे पियास पियास,
समुदहि तिनका करि गिने स्वाति बूँद की आस।
सातों सबद जू बाजते घरि घरि होते राग,
ते मंदिर खाली परे बैसन लागे काग।
कबीर कहा गरबियौ ऊंचे देखि अवास,
काल्हि परयौ भू लेटना ऊपरि जामे घास।
जांमण मरण बिचारि करि कूड़े काम निबारि,
जिनि पंथूं तुझ चालणा सोई पंथ संवारि।
बिन रखवाले बाहिरा चिड़िये खाया खेत,
आधा परधा ऊबरै चेती सकै तो चेत।
कबीर देवल ढहि पड्या ईंट भई सेंवार,
करी चिजारा सौं प्रीतड़ी ज्यूं ढहे न दूजी बार।
मन जाणे सब बात जांणत ही औगुन करै,
काहे की कुसलात कर दीपक कूंवै पड़े।
Kabir dohe in hindi
हिरदा भीतर आरसी मुख देखा नहीं जाई,
मुख तो तौ परि देखिए जे मन की दुविधा जाई।
कबीर संगी साधु का दल आया भरपूर,
इन्द्रिन को तब बाँधीया या तन किया धर।
कहैं कबीर देय तू जब लग तेरी देह,
देह खेह होय जायगी कौन कहेगा देह।
देह खेह होय जायगी कौन कहेगा देह,
निश्चय कर उपकार ही जीवन का फन येह।
या दुनिया दो रोज की मत कर यासो हेत,
गुरु चरनन चित लाइये जो पुराण सुख हेत।
गारी ही से उपजै कलह कष्ट औ मीच,
हारि चले सो सन्त है लागि मरै सो नीच।
बहते को मत बहन दो कर गहि एचहु ठौर,
कह्यो सुन्यो मानै नहीं शब्द कहो दुइ और।
बनिजारे के बैल ज्यों भरमि फिर्यो चहुँदेश,
खाँड़ लादी भुस खात है बिन सतगुरु उपदेश।
हीरा परखै जौहरी शब्दहि परखै साध,
कबीर परखै साध को ताका मता अगाध।
एकही बार परखिये ना वा बारम्बार,
बालू तो हू किरकिरी जो छानै सौ बार।
Kabir das dohe in hindi
पतिबरता मैली भली गले कांच की पोत,
सब सखियाँ में यों दिपै ज्यों सूरज की जोत।
गाँठी होय सो हाथ कर हाथ होय सो देह,
आगे हाट न बानिया लेना होय सो लेह।
धर्म किये धन ना घटे नदी न घट्ट नीर,
अपनी आखों देखिले यों कथि कहहिं कबीर।
कबीर मंदिर लाख का जडियां हीरे लालि,
दिवस चारि का पेषणा बिनस जाएगा कालि।
कबीर यह तनु जात है सकै तो लेहू बहोरि,
नंगे हाथूं ते गए जिनके लाख करोडि।
हू तन तो सब बन भया करम भए कुहांडि,
आप आप कूँ काटि है कहै कबीर बिचारि।
तेरा संगी कोई नहीं सब स्वारथ बंधी लोइ,
मन परतीति न उपजै जीव बेसास न होइ।
मैं मैं मेरी जिनी करै मेरी सूल बिनास,
मेरी पग का पैषणा मेरी गल की पास।
कबीर नाव जर्जरी कूड़े खेवनहार,
हलके हलके तिरि गए बूड़े तिनि सर भार।
ज्ञान रतन का जतन कर माटी का संसार,
हाय कबीरा फिर गया फीका है संसार।
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Kabir das ke dohe
आये है तो जायेंगे राजा रंक फ़कीर,
इक सिंहासन चढी चले इक बंधे जंजीर।
ऊँचे कुल का जनमिया करनी ऊँची न होय,
सुवर्ण कलश सुरा भरा साधू निंदा होय।
रात गंवाई सोय के दिवस गंवाया खाय,
हीरा जन्म अमोल सा कोड़ी बदले जाय।
कामी क्रोधी लालची इनसे भक्ति न होय,
भक्ति करे कोई सुरमा जाती बरन कुल खोए।
कागा का को धन हरे कोयल का को देय,
मीठे वचन सुना के जग अपना कर लेय।
कह रैदास तेरी भगति दूरि है भाग बड़े सो पावै,
तजि अभिमान मेटि आपा पर पिपिलक हवै चुनि खावै।
गुरु मिलीया रविदास जी दीनी ज्ञान की गुटकी,
चोट लगी निजनाम हरी की महारे हिवरे खटकी।
जाति-जाति में जाति हैं जो केतन के पात,
रैदास मनुष ना जुड़ सके जब तक जाति न जात।
जा देखे घिन उपजै नरक कुंड मेँ बास,
प्रेम भगति सों ऊधरे प्रगटत जन रैदास।
रविदास जन्म के कारनै होत न कोउ नीच,
नर कूँ नीच करि डारि है ओछे करम की कीच।
Kabir dohe
रैदास कनक और कंगन माहि जिमि अंतर कछु नाहिं,
तैसे ही अंतर नहीं हिन्दुअन तुरकन माहि।
रैदास कहै जाकै हृदै रहे रैन दिन राम,
सो भगता भगवंत सम क्रोध न व्यापै काम।
वर्णाश्रम अभिमान तजि पद रज बंदहिजासु की,
सन्देह-ग्रन्थि खण्डन-निपन बानि विमुल रैदास की।
हरि-सा हीरा छांड कै करै आन की आस,
ते नर जमपुर जाहिंगे सत भाषै रविदास।
हिंदू तुरक नहीं कछु भेदा सभी मह एक रक्त और मासा,
दोऊ एकऊ दूजा नाहीं पेख्यो सोइ रैदासा।
मस्जिद सों कुछ घिन नहीं मंदिर सों नहीं पिआर
दोए मंह अल्लाह राम नहीं कहै रैदास चमार।
ऊँचे कुल के कारणै ब्राह्मन कोय न होय
जउ जानहि ब्रह्म आत्मा रैदास कहि ब्राह्मन सोय।
रैदास प्रेम नहिं छिप सकई लाख छिपाए कोय
प्रेम न मुख खोलै कभऊँ नैन देत हैं रोय।
हिंदू पूजइ देहरा मुसलमान मसीति,
रैदास पूजइ उस राम कूं जिह निरंतर प्रीति।
माथे तिलक हाथ जपमाला जग ठगने कूं स्वांग बनाया,
मारग छाड़ि कुमारग उहकै सांची प्रीत बिनु राम न पाया।
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Kabir das ke dohe
जनम जात मत पूछिए का जात अरू पात,
रैदास पूत सब प्रभु के कोए नहिं जात कुजात।
मुसलमान सों दोस्ती हिंदुअन सों कर प्रीत,
रैदास जोति सभ राम की सभ हैं अपने मीत।
रैदास इक ही बूंद सो सब ही भयो वित्थार,
मुरखि हैं तो करत हैं बरन अवरन विचार।
प्रेम पंथ की पालकी रैदास बैठियो आय,
सांचे सामी मिलन कूं आनंद कह्यो न जाय।
रैदास जीव कूं मारकर कैसों मिलहिं खुदाय,
पीर पैगंबर औलिया कोए न कहइ समुझाय।
मंदिर मसजिद दोउ एक हैं इन मंह अंतर नाहि,
रैदास राम रहमान का झगड़उ कोउ नाहि।
रैदास हमारौ राम जी दशरथ करि सुत नाहिं,
राम हमउ मांहि रहयो बिसब कुटंबह माहिं।
ऐसा चाहूँ राज मैं जहाँ मिलै सबन को अन्न,
छोट बड़ो सब सम बसै रैदास रहै प्रसन्न।
करम बंधन में बन्ध रहियो फल की ना तज्जियो आस,
कर्म मानुष का धर्म है सत् भाखै रविदास।
कृस्न करीम राम हरि राघव जब लग एक न पेखा,
वेद कतेब कुरान पुरानन सहज एक नहिं देखा।
Kabir dohe
ऐसी वाणी बोलिए मन का आपा खोये,
औरन को शीतल करे आपहुं शीतल होए।
बड़ा भया तो क्या भया जैसे पेड़ खजूर,
पंथी को छाया नहीं फल लागे अति दूर।
निंदक नियेरे राखिये आँगन कुटी छावायें,
बिन पानी साबुन बिना निर्मल करे सुहाए।
पानी केरा बुदबुदा अस मानस की जात,
देखत ही छुप जाएगा है ज्यों सारा परभात।
चलती चक्की देख के दिया कबीरा रोये,
दो पाटन के बीच में साबुत बचा न कोए।
मलिन आवत देख के कलियन कहे पुकार,
फूले फूले चुन लिए कलि हमारी बार।
तिनका कबहुँ ना निन्दिये जो पाँवन तर होय,
कबहुँ उड़ी आँखिन पड़े तो पीर घनेरी होय।
अति का भला न बोलना अति की भली न चूप,
अति का भला न बरसना अति की भली न धूप।
ज्यों तिल माहि तेल है ज्यों चकमक में आग,
तेरा साईं तुझ ही में है जाग सके तो जाग।
जहाँ दया तहा धर्म है जहाँ लोभ वहां पाप,
जहाँ क्रोध तहा काल है जहाँ क्षमा वहां आप।
Kabir ke dohe in hindi
जो घट प्रेम न संचारे जो घट जान सामान,
जैसे खाल लुहार की सांस लेत बिनु प्राण।
बन्दे तू कर बन्दगी तो पावै दीदार,
औसर मानुष जन्म का बहुरि न बारम्बार।
बार-बार तोसों कहा सुन रे मनुवा नीच,
बनजारे का बैल ज्यों पैडा माही मीच।
जल में बसे कमोदनी चंदा बसे आकाश,
जो है जा को भावना सो ताहि के पास।
जग में बैरी कोई नहीं जो मन शीतल होए,
यह आपा तो डाल दे दया करे सब कोए।
ते दिन गए अकारथ ही संगत भई न संग,
प्रेम बिना पशु जीवन भक्ति बिना भगवंत।
तीरथ गए से एक फल संत मिले फल चार,
सतगुरु मिले अनेक फल कहे कबीर विचार।
तन को जोगी सब करे मन को विरला कोय,
सहजे सब विधि पाइए जो मन जोगी होए।
प्रेम न बारी उपजे प्रेम न हाट बिकाए,
राजा प्रजा जो ही रुचे सिस दे ही ले जाए।
जिन घर साधू न पुजिये घर की सेवा नाही,
ते घर मरघट जानिए भुत बसे तिन माही।
Dohe
साधु ऐसा चाहिए जैसा सूप सुभाय,
सार-सार को गहि रहै थोथा देई उडाय।
पाछे दिन पाछे गए हरी से किया न हेत,
अब पछताए होत क्या चिडिया चुग गई खेत।
जब मैं था तब हरि नहीं अब हरि है मैं नाही,
सब अँधियारा मिट गया दीपक देखा माही।
प्रेम पियाला जो पिए सिस दक्षिणा देय,
लोभी शीश न दे सके नाम प्रेम का लेय।
कबीरा सोई पीर है जो जाने पर पीर,
जो पर पीर न जानही सो का पीर में पीर।
कबीरा ते नर अँध है गुरु को कहते और,
हरि रूठे गुरु ठौर है गुरु रूठे नहीं ठौर।
कबीर सुता क्या करे जागी न जपे मुरारी,
एक दिन तू भी सोवेगा लम्बे पाँव पसारी।
नहीं शीतल है चंद्रमा हिम नहीं शीतल होय,
कबीर शीतल संत जन नाम सनेही होय।
जिही जिवरी से जाग बँधा तु जनी बँधे कबीर,
जासी आटा लौन ज्यों सों समान शरीर।
प्रेम न बाडी उपजे प्रेम न हाट बिकाई,
राजा परजा जेहि रुचे सीस देहि ले जाई।
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राम बुलावा भेजिया दिया कबीरा रोय,
जो सुख साधू संग में सो बैकुंठ न होय।
शीलवंत सबसे बड़ा सब रतनन की खान,
तीन लोक की सम्पदा रही शील में आन।
लूट सके तो लूट ले राम नाम की लूट,
पाछे फिर पछ्ताओगे प्राण जाहि जब छूट।
धीरे-धीरे रे मना धीरे सब कुछ होय,
माली सींचे सौ घड़ा ॠतु आए फल होय।
माया मरी न मन मरा मर-मर गए शरीर,
आशा तृष्णा न मरी कह गए दास कबीर।
मांगन मरण समान है मत मांगो कोई भीख,
मांगन से मरना भला ये सतगुरु की सीख।
ज्यों नैनन में पुतली त्यों मालिक घर माँहि,
मूरख लोग न जानिए बाहर ढूँढत जाहिं।
कबीरा जब हम पैदा हुए जग हँसे हम रोये,
ऐसी करनी कर चलो हम हँसे जग रोये।
जिन खोजा तिन पाइया गहरे पानी पैठ,
मैं बपुरा बूडन डरा रहा किनारे बैठ।
दोस पराए देखि करि चला हसन्त हसन्त,
अपने याद न आवई जिनका आदि न अंत।
स्वामी विवेकानंद के शैक्षिक विचार
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कहत सुनत सब दिन गए उरझि न सुरझ्या मन,
कही कबीर चेत्या नहीं अजहूँ सो पहला दिन।
दुर्लभ मानुष जन्म है देह न बारम्बार,
तरुवर ज्यों पत्ता झड़े बहुरि न लागे डार।
बोली एक अनमोल है जो कोई बोलै जानि,
हिये तराजू तौलि के तब मुख बाहर आनि।
हिन्दू कहें मोहि राम पियारा तुर्क कहें रहमाना,
आपस में दोउ लड़ी-लड़ी मुए मरम न कोउ जाना।
संत ना छाडै संतई जो कोटिक मिले असंत,
चन्दन भुवंगा बैठिया तऊ सीतलता न तजंत।
माला फेरत जुग भया फिरा न मन का फेर,
कर का मनका डार दे मन का मनका फेर।
पराधीनता पाप है जान लेहु रे मीत,
रैदास दास पराधीन सौं कौन करैहै प्रीत।
रैदास ब्राह्मण मति पूजिए जए होवै गुन हीन,
पूजिहिं चरन चंडाल के जउ होवै गुन प्रवीन।
ब्राह्मण खतरी बैस सूद रैदास जनम ते नांहि,
जो चाहइ सुबरन कउ पावइ करमन मांहि।
जात पांत के फेर मंहि उरझि रहइ सब लोग,
मानुषता कूं खात हइ रैदास जात कर रोग।
Dohe in hindi
जो ख़ुदा पच्छिम बसै तौ पूरब बसत है राम,
रैदास सेवों जिह ठाकुर कूं तिह का ठांव न नाम।
रैदास सोई सूरा भला जो लरै धरम के हेत,
अंग−अंग कटि भुंइ गिरै तउ न छाड़ै खेत।
सौ बरस लौं जगत मंहि जीवत रहि करू काम
रैदास करम ही धरम हैं करम करहु निहकाम।
अंतर गति राँचै नहीं बाहरि कथै उजास,
ते नर नरक हि जाहिगं सति भाषै रैदास।
रैदास न पूजइ देहरा अरु न मसजिद जाय,
जह−तंह ईस का बास है तंह−तंह सीस नवाय।
जिह्वा भजै हरि नाम नित हत्थ करहिं नित काम,
रैदास भए निहचिंत हम मम चिंत करेंगे राम।
नीचं नीच कह मारहिं जानत नाहिं नादान,
सभ का सिरजन हार है रैदास एकै भगवान।
साधु संगति पूरजी भइ हौं वस्त लइ निरमोल,
सहज बल दिया लादि करि चल्यो लहन पिव मोल।
रैदास जन्मे कउ हरस का मरने कउ का सोक,
बाजीगर के खेल कूं समझत नाहीं लोक।
देता रहै हज्जार बरस मुल्ला चाहे अजान।
रैदास खोजा नहं मिल सकइ जौ लौ मन शैतान।
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Kabir das ji ke dohe
बेद पढ़ई पंडित बन्यो गांठ पन्ही तउ चमार,
रैदास मानुष इक हइ नाम धरै हइ चार।
धन संचय दुख देत है धन त्यागे सुख होय,
रैदास सीख गुरु देव की धन मति जोरे कोय।
करता था तो क्यूं रहया जब करि क्यूं पछिताय,
बोये पेड़ बबूल का अम्ब कहाँ ते खाय।
झूठे को झूठा मिले दूंणा बंधे सनेह,
झूठे को साँचा मिले तब ही टूटे नेह।
करता केरे गुन बहुत औगुन कोई नाहिं,
जे दिल खोजों आपना सब औगुन मुझ माहिं।
कबीर चन्दन के निडै नींव भी चन्दन होइ,
बूडा बंस बड़ाइता यों जिनी बूड़े कोइ।
मूरख संग न कीजिए लोहा जल न तिराई,
कदली सीप भावनग मुख एक बूँद तिहूँ भाई।
कबीर संगति साध की कड़े न निर्फल होई,
चन्दन होसी बावना नीब न कहसी कोई।
जानि बूझि साँचहि तजै करै झूठ सूं नेह,
ताकी संगति रामजी सुपिनै ही जिनि देहु।
मन मरया ममता मुई जहं गई सब छूटी,
जोगी था सो रमि गया आसणि रही बिभूति।
Kabir das dohe
तरवर तास बिलम्बिए बारह मांस फलंत,
सीतल छाया गहर फल पंछी केलि करंत।
काची काया मन अथिर थिर थिर काम करंत,
ज्यूं ज्यूं नर निधड़क फिरै त्यूं त्यूं काल हसन्त।
तू कहता कागद की लेखी मैं कहता आँखिन की देखी,
मैं कहता सुरझावन हारि तू राख्यौ उरझाई रे।
मन के हारे हार है मन के जीते जीत,
कहे कबीर हरि पाइए मन ही की परतीत।
पढ़ी पढ़ी के पत्थर भया लिख लिख भया जू ईंट,
कहें कबीरा प्रेम की लगी न एको छींट।
साधु भूखा भाव का धन का भूखा नाहीं,
धन का भूखा जो फिरै सो तो साधु नाहीं।
पढ़े गुनै सीखै सुनै मिटी न संसै सूल,
कहै कबीर कासों कहूं ये ही दुःख का मूल।
कबीर हमारा कोई नहीं हम काहू के नाहिं,
पारै पहुंचे नाव ज्यौं मिलिके बिछुरी जाहिं।
देह धरे का दंड है सब काहू को होय,
ज्ञानी भुगते ज्ञान से अज्ञानी भुगते रोय।
कहते को कही जान दे गुरु की सीख तू लेय,
साकट जन औश्वान को फेरि जवाब न देय।
Kabir ji ke dohe
कबीर तहाँ न जाइये जहाँ जो कुल को हेत,
साधुपनो जाने नहीं नाम बाप को लेत।
कबीर तहाँ न जाइये जहाँ सिध्द को गाँव,
स्वामी कहै न बैठना फिर-फिर पूछै नाँव।
इष्ट मिले अरु मन मिले मिले सकल रस रीति,
कहैं कबीर तहँ जाइये यह सन्तन की प्रीति।
रैदास मदुरा का पीजिए जो चढ़ै उतराय,
नांव महारस पीजियै जौ चढ़ै उतराय।
रैदास जन्म के कारनै होत न कोए नीच,
नर कूं नीच करि डारि है ओछे करम की कीच।
मुकुर मांह परछांइ ज्यौं पुहुप मधे ज्यों बास,
तैसउ श्री हरि बसै हिरदै मधे रैदास।
राधो क्रिस्न करीम हरि राम रहीम खुदाय,
रैदास मोरे मन बसहिं कहु खोजहुं बन जाय।
जिह्वा सों ओंकार जप हत्थन सों कर कार,
राम मिलिहि घर आइ कर कहि रैदास विचार।
जब सभ करि दोए हाथ पग दोए नैन दोए कान,
रैदास प्रथक कैसे भये हिन्दू मुसलमान।
सब घट मेरा साइयाँ जलवा रह्यौ दिखाइ,
रैदास नगर मांहि रमि रह्यौ नेकहु न इत्त उत्त जाइ।
कबीर के दोहे
रैदास स्रम करि खाइहिं जौं लौं पार बसाय,
नेक कमाई जउ करइ कबहुं न निहफल जाय।
गुरु ग्यांन दीपक दिया बाती दइ जलाय,
रैदास हरि भगति कारनै जनम मरन विलमाय।
रैदास हमारो साइयां राघव राम रहीम,
सभ ही राम को रूप है केसो क्रिस्न करीम।
जाति-जाति में जाति हैं जो केतन के पात,
रैदास मनुष ना जुड़ सके जब तक जाति न जात।
हरि-सा हीरा छांड कै करै आन की आस,
ते नर जमपुर जाहिंगे सत भाषै रविदास।
करम बंधन में बन्ध रहियो फल की ना तज्जियो आस,
कर्म मानुष का धर्म है सत् भाखै रविदास।
कह रैदास तेरी भगति दूरि है भाग बड़े सो पावै,
तजि अभिमान मेटि आपा पर पिपिलक हवै चुनि खावै।
कृस्न करीम राम हरि राघव जब लग एक न पेखा,
वेद कतेब कुरान पुरानन सहज एक नहिं देखा।
जा देखे घिन उपजै नरक कुंड मेँ बास,
प्रेम भगति सों ऊधरे प्रगटत जन रैदास।
रैदास कहै जाकै हदै रहे रैन दिन राम,
सो भगता भगवंत सम क्रोध न व्यापै काम।
भगवान आपको हमेशा खुश रखे शायरी
Kabir das ke dohe
रविदास जन्म के कारनै होत न कोउ नीच,
नर कूँ नीच करि डारि है ओछे करम की कीच।
एकै साधे सब सधै सब साधे सब जाय,
रहिमन मूलहिं सींचिबो फूलै फलै अगाय।
मन ही पूजा मन ही धूप,
मन ही सेऊं सहज स्वरूप।
रहिमन निज संपति बिना कोउ न बिपति सहाय,
बिनु पानी ज्यों जलज को नहिं रवि सकै बचाय।
ब्राह्मण मत पूजिए जो होवे गुणहीन,
पूजिए चरण चंडाल के जो होवे गुण प्रवीन।
वर्णाश्रम अभिमान तजि पद रज बंदहिजासु की,
सन्देह-ग्रन्थि खण्डन-निपन बानि विमुल रैदास की।
रैदास कनक और कंगन माहि जिमि अंतर कछु नाहिं,
तैसे ही अंतर नहीं हिन्दुअन तुरकन माहि।
हिंदू तुरक नहीं कछु भेदा सभी मह एक रक्त और मासा,
दोऊ एकऊ दूजा नाहीं पेख्यो सोइ रैदासा।
कह रैदास तेरी भगति दूरि है भाग बड़े सो पावै,
तजि अभिमान मेटि आपा पर पिपिलक हवै चुनि खावै।
चरन पताल सीस असमांना,
सो ठाकुर कैसैं संपटि समांना।
Kabir das ji ke dohe
बांधू न बंधन छांऊं न छाया,
तुमहीं सेऊं निरंजन राया।
गुरु मिलीया रविदास जी दीनी ज्ञान की गुटकी,
चोट लगी निजनाम हरी की महारे हिवरे खटकी।
गुरु गोविंद दोउ खड़े काके लागूं पाँय,
बलिहारी गुरु आपने गोविंद दियो मिलाय।
माटी कहे कुमार से तू क्या रोंदे मोहे,
एक दिन ऐसा आएगा मैं रोंदुंगी तोहे।
काल करे सो आज कर आज करे सो अब,
पल में प्रलय होएगी बहुरि करेगो कब।
पोथी पढ़ पढ़ जग मुआ पंडित भया न कोय,
ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पंडित होय।
साईं इतना दीजिये जामे कुटुंब समाये,
मैं भी भूखा न रहूँ साधू न भूखा जाए।
काल करे सो आज कर आज करे सो अब,
पल में परलय होएगी बहुरि करेगा कब।
दुःख में सुमिरन सब करे सुख में करे न कोय,
जो सुख में सुमिरन करे तो दुःख काहे को होय।
बुरा जो देखन मैं चला बुरा न मिलिया कोय,
जो दिल खोजा आपना मुझसे बुरा न कोय।
Kabir dohe in hindi
मन मैला तन ऊजला बगुला कपटी अंग,
तासों तो कौआ भला तन मन एकही रंग।
जाती न पूछो साधू की पूछ लीजिये ज्ञान,
मोल करो तलवार का पड़ा रहने दो म्यान।
जीवत कोय समुझै नहीं मुवा न कह संदेश,
तन – मन से परिचय नहीं ताको क्या उपदेश।
कबीरा खड़ा बाज़ार में मांगे सबकी खैर,
ना काहू से दोस्तीन काहू से बैर।
कबीर लहरि समंद की मोती बिखरे आई,
बगुला भेद न जानई हंसा चुनी-चुनी खाई।
जब गुण को गाहक मिले तब गुण लाख बिकाई,
जब गुण को गाहक नहीं तब कौड़ी बदले जाई।
नहाये धोये क्या हुआ जो मन मैल न जाए,
मीन सदा जल में रहे धोये बास न जाए।
कुटिल वचन सबतें बुरा जारि करै सब छार,
साधु वचन जल रूप है बरसै अमृत धार।
जैसा भोजन खाइये तैसा ही मन होय,
जैसा पानी पीजिये तैसी वाणी होय।
यह तन विष की बेलरी गुरु अमृत की खान,
शीश दियो जो गुरु मिले तो भी सस्ता जान।
सब धरती काजग करू लेखनी सब वनराज,
सात समुद्र की मसि करूँ गुरु गुण लिखा न जाए।
माखी गुड में गडी रहे पंख रहे लिपटाए,
हाथ मेल और सर धुनें लालच बुरी बलाय।